शुक्रवार, 8 जुलाई 2011

ट्रेफिक सिग्नल वाली लड़की

ट्रेफिक सिग्नल वाली लड़की महेंदर कुमार वैद दिल्ली मैत्री(अभिवियक्ति) पत्रिका २००६ नाशिक से

प्रकाशित.वह भागते जा रही थी और रेड लाइट पे जैसे ही एक गाड़ी रुकी, वह भाव शुन्य चेहरा , अपने खुरदरे हाथो मे एक फटा हुआ कपडा लिए उस चार के शीशों को साफ़ करने लग गई! और उस गाड़ी मे बैठे भाव प्रफुलित चहरे आपस मे ही बात करने मे व्यस्त थे ! उनका ध्यान उस अध्फटे कपडे पहने लड़की पे नहीं गया, पर उस बिखरे बाल वाली लड़की ने उस चार की धुल मिटटी को आगे पीछे से साफ़ कर, उस बंद गाडी के शिशो को बजाया तो भी उन हँसते चेहरों पर को परिवर्तन नहीं आया! लगातार दरवाजा बजाने के बाद भी जब उस गाढ़ी मे बैठे लोगो ने उस लड़की पे कोई ध्यान नहीं नहीं दिया तब उस लड़की के भाव शुन्य चेहरे पर क्रोध और उतावलेपन का आलम सवार हो चूका था! इसलिए वो गाढ़ी के बोनट को बजाने लगी क्योकि रेड लाइट खुल चुकी थी ! और वो गाडी उसकी आँखों से दूर जा चुकी थी! और वो दूर सड़क के किनारे खड़ी अपने परिश्रम का फल न मिलने का दुःख बना रही थी! लेकिन उसकी आँखों की चमक अभी भी कम नहीं हुई थी ! अभी भी उसकी आँखे एक नई गाडी के रुकने का इंतज़ार कर रही थी! उसी उत्साह और स्फूर्ति के साथ ! लेकिन वह नहीं जानती थी की उसकी गोल गोल बटन जैसी आँखों मे जो चमक थी उस चमक का कुछ वजूद था भी की नहीं. उसकी आँखों की चमक रेड लाइट पे रुकी गाडी पर जाकर टिकती है! जिसके शीशे बंद है काले शिशो पे ज़मी धुल फिर कपडे से साफ़ होती है इतने मे गाडी का शीशा खुलता है! एक हाथ थोडा सा बहार की तरफ निकलता है और उस लड़की को पचास पैसे का सिक्का पकड़ा देता है अब इतनी बड़ी गाडी का मालिक उसे पचास पैसे दे ये उसे थोडा सा नागवार गुजरा! लेकिन इस बार उसने गाडी का बोनट नहीं बजाया, उसके चहरे के भाव शुन्य से सुनये मे चले गए, उसकी आँखों की चमक काली गाडी के काले शीशी मे खो गई एक बार फिर रेड लाइट खुली और गाडी आगे निकल गई ! अब वह पुन: उसी चोराहे पे अकेले खड़ी थी जहा से उसने अपने दिन की शुरुआत की थी? उसकी आँखों की चमक उदासी की धुंधलाहट मे खो गई थी. लेकिन इसी उदासी की धुंधलाहट मे उसकी आँखों की चमक कही छुपी हुई थी. और मे ये चमक उसकी आँखों मे रोज वह से गुजरते हुए देखा करता था!!!!लेकिन आज शाम को उसके खाली हाथो मे उदासी थी आँखों मे चमक होने के बाद भी दिल के एक कोने मे अँधेरा था! उसके फटे पुराने कपड़ो मे एक लाज थी ! और वो लाज शायद किसी चीज़ की मोहताज़ थी. शायद वही चीज़ आज उसके खाली हाथो मे नहीं थी.

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