मेरे कमरे मे दस्तावेजों के निचे कुछ साँसे दबी हुई सी थी..
जैसे जीने की मोहलत मांग रही हो .
ख़ुशी फर्श पर सुबह के बिस्तर सी उलझी मुल्झी पड़ी थी!
कुछ गम, कुछ गिले शिकवे दिवार पर घडी पोस्टर से डंगे चिपके पड़े थे ,
मेरे होने न होने का वजूद उस कमरे की दरो दीवारों के बिच कही नहीं था!
बस एक गाना बज रहा था मन्दिम सी आवाज मे.....
मे और मेरी तन्हाई अक्सर ये बाते करते है तुम होती तो ऐसा होता तुम होती तो वैसा होता....
पंखे की आवाज के साथ ये आवाज भी कानो
तक धीरे धीरे आ रही थी! मे होकर भी कही नहीं था!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!
तक धीरे धीरे आ रही थी! मे होकर भी कही नहीं था!!!!!!!!!!!!!!!!!!!!

कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें