शुक्रवार, 8 जुलाई 2011

MERA BAND KAMRA

एक अँधेरा बंद कमरा, आपस मे गुफ्तगू करती वो चार दीवारे,सन्नाटा था बिखरा पड़ा रजाई सा, ख़ामोशी मे डूबा हुआ एक चेहरा कुछ आधे अधूरे शब्दों को पूरा करने की कोशिशे कर रहा था! कितने ही शब्द लिखता कितने ही शब्द मिटाता, फिर लिखता फिर मिटाता, फिर अपनी दुनिया के सारे नीले आकाश को,तारो को चाँद को, सूरज, ज़मी, कई बिखरती शामे, मखमली सुबहो, को अपने शब्दों मे बदलने की कोशिश करता, लिखते, लिखते कई बार उसकी कल्पना दूर तक निकल जाती, कभी उसकी कल्पना हिमालये की चोटी को छूती तो कभी खली पड़े मैदानों मे विचरती, तो कही किसी रेगिस्तान मे बिन प्य्यासे के पानी सी भटकती, कही झरने के कल कल करते पानी मे तो कही, ओस की बुँदे बन घासों मे पानी बन झूलती,तो कही दूर पतों पे धुप बन के पतों पे बिखर जाती, जब हवा चलती तो ज़मी पे पानी सी बिखर जाती, जब लिखते लिखते कई सारे पन्ने भर जाते,तो उसकी सासे दम भरने लगती, उसका दिमाग अपने ही शब्दों के भवर मे इतना उलझ जाता की उसकी आसमान छूती कल्पना का संसार उसी के कमरे की गुफ्तगू करती चार दीवारों से टकरा कर वापस उसके शब्दों मे समां जाती, मे कितना अकेला था मेरी ये कल्पना और ये ख़ामोशी, मेरे ही शब्द मुझे छोटे लगने लगे,मेरी कल्पना शब्द बन के बिखरी पड़ी थी पन्नो पे,पन्नो पे पड़ी लेंप की रोशनी भी अपनी ही परिधि मे सिमटी पड़ी थी, अपने सारे शब्दों के जाल को जलाने के लिए टेबल पे पड़ी अपनी सिगरेट को जला लिया, धुआ कमरे मे शब्द बन के दीवारों के पोरों मे गुसने लगा. अपने ही कमरे मे जब दम घुटने लगा तो पंखा चला कर बिस्तर पे लेट गया! थोड़ी ही देर मे टेबल पे रखे पन्ने ऐसे फद्फड़ाने लगे जैसे किसी मुर्गे को कांटने से पहले वो पूरी ताकत के साथ अपने पंख फदफ्द्ता है! कमरे मे फेली सीलन पंखे की रफ़्तार के साथ साथ कम होती जा रही थी, घडी की सुई टनाटन करती करती मानो मुझे चिड़ा रही थी! जैस मुझे से कह रही हो मे अपनी रफ़्तार को तुम्हारे लिए नहीं रोक सकती! बिता समय कभी वापस नहीं आता! अगर बार बार आती है तो सिर्फ और सिर्फ यादे! जिन को हम ता उम्र अपने सीने से इस प्रकार चिपका के रखते है जैसे कंगारू अपने नवजात बच्चे को अपने पेट से चिपकाए रखता है..........सच कितने याद आते है वो दिन जो बीत चुके है ...............कोई रिमोट कंट्रोल नहीं के बटन दबओ और अपनी जिंदगी को आगे पीछे करते रहो.......मेरी समृति कुंजी पटल के रोड पे कई सारी यादो की गाड़ी बेलगाम सी दोड़ने लगी! मे विराम नहीं लगाना चाहता था इस लिए सारी की सारी गाड़िया सरपट दोड़े जा रही थी! जब पेट्रोल ख़तम हो गया तब तक आँखे सो चुकी थी!................................अपने आप ही विराम लगा गया! कई बार कुछ चीज़े हमारे हाथ मे नहीं होती! इसलिए कुछ चीजों को वक़त के हवाले कर देना चाहिए! आंखे तो सो चुकी थी सपने जग चुके थे! मानो नई नवेली दुलहन अपनी शादी के पहले दिन साज़ श्रंगार करके अपने पति देव का इंतज़ार कर रही हो ! ठीक वैसे ही सपने भी टाक लगा के बैठे थे किसी होशियार शिकारी की तरह जाल मे फसा नहीं के डाप लो साले शिकार को! सपने पंख लगा के उड़ रहे थे किसी खाए पिए मदमस्त पक्षी की तरह!वही पुरानी दिल्ल्ली की पुराने रिक्शे सी हिचकोले खाती सड़के जिन पे मे कुछ दिनों पहले घूम रहा था! वही सालो पुरानी सड़के वही पुराने मकान वही पुरानी सी दुकाने वही मुग़ल काल की मस्जिद वही लाल किला वही गुरुद्वरा मेरी कल्पना और मेरा कमरा पुरानी यादो के झरोके से झाकती वो तस्वीर...........

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